जनसम्पर्क विभाग: ‘प्रचार’ का मंच या ‘विवाद’ का अखाड़ा?

जनसम्पर्क विभाग: ‘प्रचार’ का मंच या ‘विवाद’ का अखाड़ा?

जनसम्पर्क विभाग की ‘भरोसे की दीवार’ में दरार — क्या मुख्यमंत्री करेंगे सख्त कार्रवाई?

विज्ञापन का खेल और सत्ता की चुप्पी — जनता से संवाद करने वाला विभाग अब ‘प्रचार’ का अखाड़ा!

सरकारी गलियारों से लेकर राजनीतिक चर्चाओं तक, अब एक ही सवाल – वरिष्ठता को दरकिनार करने की कीमत: अनुभव पर भारी पड़ी चापलूसी की राजनीति

पत्रकारों पर झूठी FIR और मारपीट के विरोध में उबाल — मुख्यमंत्री के नाम सौंपे गए ज्ञापन!

रायपुर। छत्तीसगढ़ सरकार का जनसम्पर्क विभाग इन दिनों गलत वजहों से सुर्खियों में है। विभाग, जिसका उद्देश्य शासन की नीतियों और मुख्यमंत्री की छवि को सशक्त बनाना था, वहीं अब सवालों और विवादों का केंद्र बन चुका है। पूरे घटनाक्रम के केंद्र में हैं – जनसम्पर्क आयुक्त डॉ. रवि मित्तल, जिनकी नियुक्ति को कभी “रणनीतिक और भरोसेमंद कदम” कहा गया था, लेकिन अब वही भरोसा सरकार के गले की फांस बनता दिख रहा है। जनसम्पर्क विभाग की कमान उस समय डॉ. रवि मित्तल को सौंपी गई, जब विभाग में कई वरिष्ठ, अनुभवी और सक्षम अधिकारी पहले से मौजूद थे। इनमें तारन प्रकाश सिन्हा, दीपांशु काबरा, सोनमणि बोरा और सुकुमार टोप्पो जैसे अधिकारी शामिल हैं – जिनके पास न केवल अनुभव था, बल्कि विभागीय और जनसंपर्क की गहरी समझ भी। इन सभी को नजरअंदाज करते हुए एक जूनियर अधिकारी को शीर्ष पद पर बैठाना न केवल नौकरशाही की परंपराओं के विपरीत माना गया, बल्कि इसने प्रशासनिक असंतुलन भी पैदा कर दिया। आज नतीजा सामने है – विभाग के भीतर ही दो धड़े स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। एक समूह जो “आदेश पालन” के नाम पर चुप है, और दूसरा जो खुलकर सवाल उठा रहा है कि “क्या सीनियर अफसरों की अनदेखी और अनुभव की उपेक्षा अब सरकार को भारी पड़ रही है?” विभाग की दिशा और अनुशासन पर सवाल जनसम्पर्क विभाग को सरकार और जनता के बीच संवाद का सेतु माना जाता है। लेकिन पिछले कुछ महीनों में यह सेतु “बेपटरी” होता नज़र आ रहा है। विभाग में विज्ञापन वितरण से लेकर फाइलों के निपटान तक अनुशासन की कमी और चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। कई वरिष्ठ अधिकारी ऑफ रिकॉर्ड स्वीकार करते हैं कि विभाग में “पसंद-नापसंद की चकल्लस” हावी है। कुछ खास माध्यमों को विज्ञापन देकर बाकी को नजरअंदाज किया जा रहा है, जिससे न केवल मीडिया जगत में असंतोष बढ़ा है, बल्कि सरकार की “निष्पक्षता की छवि” पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं।

किस दिशा में जाएगा जनसम्पर्क विभाग?

राज्य सरकार के लिए यह समय बेहद संवेदनशील है। छवि प्रबंधन के लिए जिम्मेदार विभाग यदि खुद ‘छवि संकट’ में फँस जाए, तो यह केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि रणनीतिक विफलता भी मानी जाएगी। जनसम्पर्क का उद्देश्य संवाद, पारदर्शिता और जनविश्वास है – न कि भ्रम, असंतुलन और विवाद। अब देखना यह है कि मुख्यमंत्री इस स्थिति पर कितनी जल्दी और कितनी सख्ती से नियंत्रण करते हैं।

भरोसे का आदमी’ अब ‘विवादों का केंद्र’:

सीएम की छवि हो रही खराब मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने जिस भरोसे के साथ डॉ. मित्तल को आगे बढ़ाया था, वही भरोसा अब आलोचना का कारण बन गया है। सीएम की छवि सुधारने के बजाय विभागीय अफसरों की अदूरदर्शी कार्यशैली और विवादित निर्णयों ने सरकार की साख पर दाग लगाने का काम किया है। विज्ञापन नीति में असंतुलन, आदेशों का राजनीतिक इस्तेमाल और ‘अपनों को लाभ’ पहुंचाने की चर्चाएं अब खुले में हैं। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा आम है कि डॉ. मित्तल के कार्यकाल ने मुख्यमंत्री की छवि को चमकाने के बजाय धुंधला कर दिया है।

“भरोसे के आदमी” की पहचान अब “विवादों के केंद्र” के रूप में बदलती जा रही है।

अंदरूनी असंतोष और प्रशासनिक विभाजन की आहट जनसम्पर्क विभाग में इन दिनों माहौल सामान्य नहीं है। विभागीय निर्णयों को लेकर फैलती असहजता संकेत दे रही है कि विभाग के भीतर विश्वास की दरार गहरी होती जा रही है। प्रदेश के कई अनुभवी अधिकारी अब इस स्थिति को “अप्राकृतिक और खतरनाक” मान रहे हैं, क्योंकि जनसम्पर्क जैसी संवेदनशील इकाई में समन्वय का टूटना सीधे सरकार की नीति और जनता के भरोसे को प्रभावित करता है।

धारणा का संकट या एजेंडे का खेल: क्या कोई गुप्त एजेंडा चल रहा है?

राजनीतिक गलियारों में यह धारणा तेज़ी से फैल रही है कि डॉ. रवि मित्तल अपने मूल दायित्व से भटक चुके हैं। उनकी कार्यशैली न केवल विभाग की साख को कमजोर कर रही है, बल्कि मुख्यमंत्री की छवि पर भी चोट पहुँचा रही है। कई सूत्रों का कहना है कि यह केवल प्रशासनिक अक्षमता नहीं, बल्कि “रणनीतिक भ्रम” का नतीजा है – जिसके पीछे किसी गहरे ‘एजेंडे’ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

राजनीतिक गलियारों में गूंजता सवाल: “क्या कोई गुप्त एजेंडा चल रहा है?”

राजनीतिक हलकों में यह चर्चा धीरे-धीरे तेज़ हो रही है कि डॉ. मित्तल कहीं किसी अदृश्य एजेंडे के तहत तो काम नहीं कर रहे, जिसका उद्देश्य खुद मुख्यमंत्री को कमजोर करना हो। कई नेताओं का मानना है कि उनकी गतिविधियों और निर्णयों का प्रभाव मुख्यमंत्री की विश्वसनीयता पर प्रतिकूल पड़ रहा है। यही कारण है कि भाजपा संगठन और सरकार दोनों के भीतर अब यह विषय संवेदनशील रूप से देखा जा रहा है। अब निगाहें मुख्यमंत्री की ओर हैं – क्या वे इसे नज़रअंदाज़ करेंगे, या सख्त कार्रवाई का रास्ता चुनेंगे?

समीकरणों की उलझन और मुख्यमंत्री की मुश्किलें सूत्र बताते हैं कि मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय फिलहाल संतुलन बनाए रखने की कोशिश में हैं। लेकिन यह संतुलन दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। एक ओर विभागीय अनियमितताएं हैं, दूसरी ओर विपक्ष और मीडिया की तीखी आलोचना। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या अब मुख्यमंत्री को निर्णायक कदम उठाना चाहिए? सरकार की छवि और भरोसे की लड़ाई अब केवल जनसम्पर्क विभाग के भीतर नहीं रह गई है, बल्कि यह राज्य की राजनीतिक साख से जुड़ चुकी है।

जनसम्पर्क’ का अंधेरा: विज्ञापन अब ‘इनाम’ नहीं, ‘हथियार’ है!-मनोज पाण्डेय

कभी यह विभाग जनसम्पर्क कहलाता था – जनता और सरकार के बीच पुल बनने का प्रतीक। आज वही पुल चरमरा रहा है, दीवारों में दरारें हैं, और उस पार बैठे हुक्मरान तक जनता की आवाज़ पहुँचने से पहले ही किसी की कुर्सी की मर्ज़ी में दम तोड़ देती है। छत्तीसगढ़ का जनसम्पर्क विभाग इन दिनों एक नाजुक दौर में नहीं, एक खतरनाक मोड़ पर खड़ा है, जहाँ सत्य और सुविधा के बीच सीधा युद्ध छिड़ चुका है। कभी संवाद के लिए बने इस भवन में अब “संवाद” नहीं, “सहमति” मांगी जाती है। यहाँ सवाल पूछना गुनाह है, और चुप रहना सबसे बड़ी योग्यता। कभी विज्ञापन पत्रकारिता का आधार नहीं, उसका ईंधन हुआ करते थे, एक माध्यम जिससे शासन जनता से संवाद करता था। पर आज विज्ञापन विचारों को बांधने का हथियार बन गए हैं।

कौन लिखेगा, कौन बोलेगा, कौन चुप रहेगा – यह अब ख़बर नहीं, “कॉन्ट्रैक्ट” तय करते हैं।

जिन मीडिया संस्थानों ने सवाल किए, उनके विज्ञापन बंद कर दिए गए। जिन्होंने मुस्कराकर प्रणाम किया, उनके खाते में प्रसन्नता जमा हो गई। यह प्रचार का बाजार नहीं, जनता के विश्वास का सौदा है।
और अफसोस की बात यह है कि यह सब उस विभाग में हो रहा है जिसका नाम “जनसम्पर्क” है – यानी जनता से सम्पर्क!
पर अब लगता है, जनता तो कहीं दूर रह गई है; सम्पर्क अब बस “चहेतों” से रह गया है। विभाग में अनुशासन कभी उसकी आत्मा था। एक प्रणाली थी जो तय करती थी कि सरकार की आवाज़ निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से जनता तक पहुँचे। अब वह आत्मा कहीं खो गई है। नीतियाँ फाइलों में हैं, पर फ़ैसले टेबल के इशारों से तय होते हैं। चहेतों की चकल्लस चलती है, और ईमानदार अफसरों की आवाज़ खामोश रहती है।

यह वही विभाग है जहाँ कभी कहा जाता था – “हम जनता की आँख बनेंगे।” आज वही आँखें बंद हैं, ताकि व्यवस्था की गलियों का अंधेरा दिखाई न दे। पत्रकारों/संपादकों का उत्पीड़न अब आम है। जब कोई पत्रकार सवाल पूछता है, तो वह शासन का विरोध नहीं, शासन का आइना दिखाता है। पर अब यह आइना कई लोगों को असहज करने लगा है। विज्ञापन रोक देना, पोर्टल बंद करवा देना, रिपोर्टर को “ब्लैकलिस्ट” कर देना – यह लोकतंत्र का चेहरा नहीं, उसकी चुप्पी का चेहरा है। यह खेल खतरनाक है – क्योंकि जब पत्रकार डरने लगता है, तो जनता अंधी हो जाती है। और जब जनता अंधी होती है, तो शासन निरंकुश हो जाता है। पत्रकारिता का उद्देश्य ताली बजाना नहीं, सवाल उठाना है। पर अब ऐसा लगता है कि सवाल करने वालों को “देशद्रोही” और “दुश्मन” घोषित करने का लाइसेंस भी कुछ अफसरों को मिल गया है। छत्तीसगढ़ का मीडिया जगत इस वक्त दो हिस्सों में बँट चुका है – एक वह जो डर में जी रहा है, और दूसरा जो डर दिखा रहा है। जनसम्पर्क विभाग की यह भूमिका, जो कभी विश्वास का प्रतीक थी, अब भय का स्रोत बन गई है। सरकारें आती-जाती रहती हैं, पर संस्थान की आत्मा हमेशा बची रहनी चाहिए। अगर वही आत्मा मर जाए, तो केवल कुर्सियाँ बचती हैं और कुर्सियाँ कभी जनमत नहीं बना सकतीं।

अब सवाल यह नहीं कि “कौन गलत है”, सवाल यह है कि “कौन बचेगा?”

हर सरकार अपने आलोचक से डरती है, पर समझदार सरकारें उसी आलोचना से सीखती हैं। आज समय है कि सत्ता यह समझे – विज्ञापन से इमेज नहीं बनती, इमेज विश्वास से बनती है। जो आवाज़ें आज दबाई जा रही हैं, वे कल तूफ़ान बनेंगी। जो कलमें आज रुकी हैं, वे कल इतिहास लिखेंगी। और तब शायद यही लिखा जाएगा – “जनसम्पर्क विभाग कभी जनता का था, फिर किसी के चहेतों का हो गया, और अंत में चुप्पी का।”

अंत में एक सवाल…क्या यह वही छत्तीसगढ़ है, जहाँ संवाद सबसे बड़ा मूल्य था? क्या यही वह शासन है जो जनता से भरोसे का रिश्ता बनाना चाहता था? अगर हाँ, तो फिर पत्रकारों की आवाज़ क्यों डर में है? या क्यों दबाई जा रही है? लोकतंत्र में सत्ता की ताकत नहीं, सवाल की आज़ादी ही सबसे बड़ी पूँजी होती है। और जब सवाल पूछना अपराध बन जाए – तो समझ लीजिए, सत्ता नहीं, लोकतंत्र खतरे में है।
यह सम्पादकीय शासन की आलोचना नहीं, चेतावनी है; क्योंकि जब संवाद मरता है, तो जनसम्पर्क नहीं, पूरा लोकतंत्र रोता है।

पत्रकार उत्पीड़न के खिलाफ प्रदेशभर में विरोध, मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपे

छत्तीसगढ़ संवाद कार्यालय के अधिकारी पर मारपीट व झूठी FIR कराने का आरोप, निष्पक्ष जांच की मांग तेज

छत्तीसगढ़ संवाद कार्यालय में कार्यरत एक अधिकारी द्वारा पत्रकारों से मारपीट और पुलिस द्वारा बुलंद छत्तीसगढ़ समाचार पत्र के संपादक मनोज पांडेय के घर पर की गई विधिविरुद्ध कार्रवाई को लेकर प्रदेशभर में विरोध तेज हो गया है। प्रेस एंड मीडिया वेलफेयर एसोसिएशन की ओर से आज सुकमा जिले में मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपा गया। घटना की निंदा करते हुए प्रदेश के विभिन्न जिलों में भी कई संस्थाओं ने ज्ञापन देकर निष्पक्ष जांच और कड़ी कार्रवाई की मांग की है। संगठनों ने कहा कि पत्रकारों के साथ हो रहे उत्पीड़न की घटनाएं लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय हैं और सरकार को इस पर सख्त कदम उठाने चाहिए। प्रदेश में – जशपुर, रायगढ़, सरगुजा, सुकमा, बलरामपुर, रामानुजगंज, सूरजपुर आदि स्थानों पर विभिन्न संस्थाओं/संगठनों की ओर से भी पत्रकार उत्पीड़न मामले में मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन सौंपे गए। इनमें – अनुज गुप्ता प्रदेश अध्यक्ष- अखिल भारतीय वैश्य एकता मंच, विपिन सिंह जिला प्रभारी आरपीआई, संजय पाठक जिला अध्यक्ष युवा कांग्रेस , विनोद भगत ब्लॉक अध्यक्ष उरांव समाज, सोमल तिर्की जिला महासचिव युवा कांग्रेस, रिजवी अंसारी यूथ कांग्रेस, लालू यादव जिला प्रभारी जशपुर प्रेस एंड मीडिया वेलफेयर एसोसिएशन, आफताब खान युवा कांग्रेस सहित कई सामाजिक एवं राजनीतिक संगठके के प्रतिनिधि प्रमुख हैं।

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